Thursday, July 1, 2021

क्या हम सामाजिक नहीं रहे ? - Gaurishankar Chaubey


हल खींचते समय यदि कोई बैल गोबर या मूत्र करने की स्थिति में होता था तो किसान कुछ देर के लिए हल चलाना बन्द करके बैल के मल-मूत्र त्यागने तक खड़ा रहता था ताकि बैल आराम से यह नित्यकर्म कर सके, यह आम चलन था!

 हमने (ईश्वर वैदिक) यह सारी बातें बचपन में स्वयं अपनी आंखों से देख हुई हैं!

जीवों के प्रति यह गहरी संवेदना उन महान पुरखों में जन्मजात होती थी जिन्हें आजकल हम अशिक्षित कहते हैं!

यह सब अभी 25-30 वर्ष पूर्व तक होता रहा!

उस जमाने का देसीघी यदि आजकल के हिसाब से मूल्य लगाएं तो इतना शुद्ध होता था कि  2 हजार रुपये किलो तक बिक सकता है ! उस देसी घी को किसान विशेष कार्य के दिनों में हर दो दिन बाद आधा-आधा किलो घी अपने बैलों को पिलाता था!

टिटहरी नामक पक्षी अपने अंडे खुले खेत की मिट्टी पर देती है और उनको सेती है...हल चलाते समय यदि सामने कहीं कोई टिटहरी चिल्लाती मिलती थी तो किसान इशारा समझ जाता था और उस अंडे वाली जगह को बिना हल जोते खाली छोड़ देता था! उस जमाने में आधुनिकशिक्षा नहीं थी!

सब आस्तिक थे!
 
दोपहर को किसान जब आराम करने का समय होता तो सबसे पहले बैलों को पानी पिलाकर चारा डालता और फिर खुद भोजन करता था...यह एक सामान्य नियम था !

बैल जब बूढ़ा हो जाता था तो उसे कसाइयों को बेचना शर्मनाक सामाजिकअपराध की श्रेणी में आता था!
बूढाबैल कई सालों तक खाली बैठा चारा खाता रहता था...मरने तक उसकी सेवा होती थी!

उस जमाने के तथाकथित अशिक्षित किसान का मानवीय तर्क था कि इतने सालों तक इसकी माँ का दूध पिया और इसकी कमाई खाई है...अब बुढापे में इसे कैसे छोड़ दें? कैसे कसाइयों को दे दें काट खाने के लिए?

जब बैल मर जाता तो किसान फफक-फफक कर रोता था और उन भरी दुपहरियों को याद करता था जब उसका यह वफादार मित्र हर कष्ट में उसके साथ होता था! माता-पिता को रोता देख किसान के बच्चे भी अपने बुड्ढे बैल की मौत पर रोने लगते थे!
लगता..... घर का कोई बड़ा सदस्य ही चला गया है।

पूरा जीवन काल तक बैल अपने स्वामी किसान की मूक भाषा को समझता था कि वह क्या कहना चाह रहा है?

वह पुराना भारत इतना शिक्षित और धनाढ्य था कि अपने जीवनव्यवहार में ही जीवनरस खोज लेता था । वह करोड़ों वर्ष पुरानी संस्कृति वाला वैभवशाली भारत था ! 

वह अतुल्य भारत था!

 सोने की चिड़िया !
सोने जैसे दिलों वाले लोगों का भारत !

 जहां से ,जिससे, जैसे भी सहयोग मिला हो , सबके प्रति कृतज्ञता और प्रेम । पेड़ पौधों में देवता , नदियों में देवी , वायु देवता , अग्नि देवता, वरुण देवता सूर्य देवता । सबको सम्मान, सबका संरक्षण।विशेष दिन, त्योहारों, अवसरों पर अलग अलग तरीकों से कृतज्ञता ज्ञापन । 

चाहे विवाह के अवसर पर कुम्हार के लिए अनाज कपड़ों का उपहार के जाना और चाक पूजना, नदी कुओं की पूजा कर पानी लाना , बच्चों के जन्म के बाद कुआं पूजने की रस्म आदि बहुत सी रस्में। दैनिक जीवन में सुबह ही तुलसी मैया तथा पीपल देवता की पूजा से होती है।

पर अब
ये सब छूट गया । क्या हम सामाजिक नहीं रहे ? 

अहसान फरामोश हो गए ? 

नहीं ! 
बस हम प्रेक्टिकल हो गए हैं।प्रकृति से साधन तो सब लेने हैं पर कृतज्ञ हम किसी के नहीं हैं। 
सबके लिए पैसा चुका रहे है ना ? 
माता पिता तक के कृतज्ञ नहीं  
हमारे जीवन का केंद्र बन गया है  पैसा।

सभी गतिविधियां , रिश्ते पैसे पर निर्भर करते है ।इसीलिए जीवन से मिठास गायब है।

आइए इस पर विचार करें, 

चिंतन मनन करें। चलिए कुछ रिश्ते निस्वार्थ भाव से , बिना किसी अपेक्षा के निर्वहन करने का प्रयास करें, चाहे वो इंसान इंसान के बीच का रिश्ता हो , या फिर इंसान और प्रकृति ( पेड़ , पशु, पक्षी , नदी , तालाब ) के बीच का।
 




















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