Monday, July 19, 2021

नेक कर्म

 टूटी चप्पल


"पता नहीं ये सामने वाला सेठ हफ्ते में 3-4 बार अपनी चप्पल कैसे तोड़ लाता है?"


मोची बुदबुदाया, नजर सामने की बड़ी किराना दूकान पर बैठे सेठ पर थी। हर बार जब उस मोची के पास कोई काम ना होता तो उस सेठ का नौकर सेठ की टूटी चप्पल बनाने को दे जाता। 


मोची अपनी पूरी लगन से वो चप्पल सी देता की अब तो 2-3 महीने नहीं टूटने वाली। सेठ का नौकर आता और बिना मोलभाव किये पैसे देकर उस मोची से चप्पल ले जाता। पर 2-3 दिन बाद फिर वही चप्पल टूटी हुई उस मोची के पास पहुंच जाती। 


आज फिर सुबह हुई, फिर सूरज निकला। सेठ का नौकर दूकान की झाड़ू लगा रहा था। और सेठ,  अपनी चप्पल तोड़ने में लगा था , पूरी मश्शकत के बाद जब चप्पल न टूटी तो उसने नौकर को आवाज लगाई। "अरे रामधन इसका कुछ कर, ये मंगू भी पता नहीं कौनसे धागे से चप्पल सिलता है, टूटती ही नहीं।






"रामधन आज सारी गांठे खोल लेना चाहता था "सेठ जी मुझे तो आपका ये हर बार का नाटक समझ में नहीं आता। खुद ही चप्पल तोड़ते हो फिर खुद ही जुडवाने के लिए उस मंगू के पास भेज देते हो।"





सेठ को चप्पल तोड़ने में सफलता मिल चुकी थी। उसने टूटी चप्पल रामधन को थमाई और रहस्य की परते खोली "देख रामधन जिस दिन मंगू के पास कोई ग्राहक नहीं आता उसदिन ही मैं अपनी चप्पल तोड़ता हूं, क्योंकी मुझे पता है, मंगू गरीब है, पर स्वाभिमानी है, मेरे इस नाटक से अगर उसका स्वाभिमान और मेरी मदद दोनों शर्मिंदा होने से बच जाते है तो क्या बुरा है। 


आसमान साफ था पर रामधन की आँखों के बादल बरसने को बेक़रार थे।  


 लाकडाउन के कारण हमारे आसपास आज ऐसे अनेकों परिवार होंगे जिनके रोजगार छूट गये होंगे।अपने आसपास के किसी एक की चिंता यदि हम कर सकें तो बहुत बड़ी समस्या के समाधान में हम सहायक हो सकते हैं।                                                

                                                                  

       







🌳पर हित सरस धर्म नहीं भाई ।

पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।🌳


सभी को कुछ न कुछ जो बन पड़े दूसरों के दुख दर्द को बांटने का प्रयास करते रहना चाहिए, इससे जो आत्म सन्तुष्टि मिलेगी यकीन मानिए कई लाख और करोड़ खर्च कर देने पर भी दुनिया मे कही नही मिलेगी।




स्वस्थ रहे ।। मस्त रहे ।। व्यस्थ रहे

गौरीशंकर चौबे 





Saturday, July 3, 2021

भक्ति में ही शक्ति है

 ~ प्रभु का पत्र ~


मेरे प्रिय....

सुबह तुम जैसे ही सो कर उठे में तुम्हारे बिस्तर के पास ही खड़ा था। मुझे लगा की तुम मुझसे कुछ बात करोगे।  तुम कल या पिछले हफ्ते हुई किसी बात या घटना के लिये मुझे धन्यवाद कहोगे। लेकिन तुम फटाफट चाय पी कर तैयार होने चले गए और मेरी तरफ देखा भी नहीं।


फिर मैंने  सोचा की तुम नहा के मुझे याद करोगे। पर तुम इस उलझन में लग गये की तुम्हे आज कौन से कपड़े पहनने हैं!!  फिर जब तुम जल्दी से नाश्ता कर रहे थे और अपने ऑफिस के कागज  इकठे करने के लिये घर में इधर से  उधर दौड़ रहे थे.... तो भी मुझे लगा की शायद अब तुम्हे मेरा ध्यान आयेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

फिर जब तुमने ओफिस जाने के  लिए ट्रेन पकड़ी तो में समझा की इस खाली समय का उपयोग तुम मुझसे बातचीत करने में करोगे। पर तुमने थोड़ी देर पेपर पढ़ा और फिर खेलने लग गए अपने मोबाइल में और में खड़ा का खड़ा ही रह गया। 


में तुम्हें बताना चाहता था कि दिन का कुछ हिस्सा मेरे साथ बिता कर तो देखो, तुम्हारे काम और भी अच्छी तरह से होने लगेंगे, लेकिन तुमनें मुझसे बात ही नहीं की। एक मौका ऐसा भी आया जब तुम बिलकुल खाली थे और कुर्सी पर पूरे 15 मिनट यू ही बैठे रहे, लेकिन तब भी तुम्हें मेरा ध्यान नहीं आया। 


दिन का अब भी काफी समय बचा था। मुझे लगा की शायद इस बचे समय में हमारी बात हो जाएगी.... लेकिन घर पँहुचने के बाद, तुम रोज के कामों में व्यस्त हो गये। जब वे काम निपट गये तुमने टीवी खोल लिया और घंटो टीवी देखते रहे। और देर रात थककर तुम बिस्तर पर आ लेटे।

तुमनें अपनी पत्नी, बच्चों को शुभरात्री कहा और चुपचाप चादर ओढकर सो गये। 


मेरा बड़ा मन था कि में भी तुम्हारी दिनचर्या का हिस्सा बनू.. 

तुम्हारे साथ कुछ वक्त बिताऊँ ..

तुम्हारी कुछ सुनु... तुम्हे कुछ सुनाऊँ। कुछ मार्गदर्शन करुँ तुम्हारा ताकि तुम्हें समझ आए कि तुम किस लिए इस धरती पर आए हो और किन कामों में उलझ गए हो... लेकिन, तुम्हें समय ही नहीं मिला और में मन मार कर ही रह गया। 



 में तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ।

हर रोज़ में इस बात का इन्तज़ार करता हूँ कि तुम मेरा ध्यान करोगे और अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए मेरा धन्यवाद करोगे। 



पर तुम तब ही आते हो जब तुम्हें कुछ चाहिए होता है। तुम जल्दी में आते हो और अपनी माँगे मेरे आगे रख के चले जाते हो। और मजे की बात तो यह है कि इस प्रक्रिया में तुम मेरी तरफ देखते भी नहीं। 


खैर कोई बात नहीं....

हो सकता है कल तुम्हें मेरी याद आ जाये। 

ऐसा मुझे विश्वास है और मुझे तुम में आस्था है। आखिरकार मेरा दूसरा नाम... " आस्था और विश्वास ही तो है"।

     



 तुम्हारा ईश्वर....





                                                                      ~ संदेश ~


"अच्छे समय में अगर हम भगवान को शुक्रिया अदा नहीं करते, तो खराब समय के लिए भगवान को जिम्मेदार ठहराने का हमें कोई हक नहीं".


स्वस्थ रहे ।। मस्त रहे।। व्यस्थ रहे

सदैव मुस्कुराते रहे 


गौरीशंकर चौबे

Thursday, July 1, 2021

क्या हम सामाजिक नहीं रहे ? - Gaurishankar Chaubey


हल खींचते समय यदि कोई बैल गोबर या मूत्र करने की स्थिति में होता था तो किसान कुछ देर के लिए हल चलाना बन्द करके बैल के मल-मूत्र त्यागने तक खड़ा रहता था ताकि बैल आराम से यह नित्यकर्म कर सके, यह आम चलन था!

 हमने (ईश्वर वैदिक) यह सारी बातें बचपन में स्वयं अपनी आंखों से देख हुई हैं!

जीवों के प्रति यह गहरी संवेदना उन महान पुरखों में जन्मजात होती थी जिन्हें आजकल हम अशिक्षित कहते हैं!

यह सब अभी 25-30 वर्ष पूर्व तक होता रहा!

उस जमाने का देसीघी यदि आजकल के हिसाब से मूल्य लगाएं तो इतना शुद्ध होता था कि  2 हजार रुपये किलो तक बिक सकता है ! उस देसी घी को किसान विशेष कार्य के दिनों में हर दो दिन बाद आधा-आधा किलो घी अपने बैलों को पिलाता था!

टिटहरी नामक पक्षी अपने अंडे खुले खेत की मिट्टी पर देती है और उनको सेती है...हल चलाते समय यदि सामने कहीं कोई टिटहरी चिल्लाती मिलती थी तो किसान इशारा समझ जाता था और उस अंडे वाली जगह को बिना हल जोते खाली छोड़ देता था! उस जमाने में आधुनिकशिक्षा नहीं थी!

सब आस्तिक थे!
 
दोपहर को किसान जब आराम करने का समय होता तो सबसे पहले बैलों को पानी पिलाकर चारा डालता और फिर खुद भोजन करता था...यह एक सामान्य नियम था !

बैल जब बूढ़ा हो जाता था तो उसे कसाइयों को बेचना शर्मनाक सामाजिकअपराध की श्रेणी में आता था!
बूढाबैल कई सालों तक खाली बैठा चारा खाता रहता था...मरने तक उसकी सेवा होती थी!

उस जमाने के तथाकथित अशिक्षित किसान का मानवीय तर्क था कि इतने सालों तक इसकी माँ का दूध पिया और इसकी कमाई खाई है...अब बुढापे में इसे कैसे छोड़ दें? कैसे कसाइयों को दे दें काट खाने के लिए?

जब बैल मर जाता तो किसान फफक-फफक कर रोता था और उन भरी दुपहरियों को याद करता था जब उसका यह वफादार मित्र हर कष्ट में उसके साथ होता था! माता-पिता को रोता देख किसान के बच्चे भी अपने बुड्ढे बैल की मौत पर रोने लगते थे!
लगता..... घर का कोई बड़ा सदस्य ही चला गया है।

पूरा जीवन काल तक बैल अपने स्वामी किसान की मूक भाषा को समझता था कि वह क्या कहना चाह रहा है?

वह पुराना भारत इतना शिक्षित और धनाढ्य था कि अपने जीवनव्यवहार में ही जीवनरस खोज लेता था । वह करोड़ों वर्ष पुरानी संस्कृति वाला वैभवशाली भारत था ! 

वह अतुल्य भारत था!

 सोने की चिड़िया !
सोने जैसे दिलों वाले लोगों का भारत !

 जहां से ,जिससे, जैसे भी सहयोग मिला हो , सबके प्रति कृतज्ञता और प्रेम । पेड़ पौधों में देवता , नदियों में देवी , वायु देवता , अग्नि देवता, वरुण देवता सूर्य देवता । सबको सम्मान, सबका संरक्षण।विशेष दिन, त्योहारों, अवसरों पर अलग अलग तरीकों से कृतज्ञता ज्ञापन । 

चाहे विवाह के अवसर पर कुम्हार के लिए अनाज कपड़ों का उपहार के जाना और चाक पूजना, नदी कुओं की पूजा कर पानी लाना , बच्चों के जन्म के बाद कुआं पूजने की रस्म आदि बहुत सी रस्में। दैनिक जीवन में सुबह ही तुलसी मैया तथा पीपल देवता की पूजा से होती है।

पर अब
ये सब छूट गया । क्या हम सामाजिक नहीं रहे ? 

अहसान फरामोश हो गए ? 

नहीं ! 
बस हम प्रेक्टिकल हो गए हैं।प्रकृति से साधन तो सब लेने हैं पर कृतज्ञ हम किसी के नहीं हैं। 
सबके लिए पैसा चुका रहे है ना ? 
माता पिता तक के कृतज्ञ नहीं  
हमारे जीवन का केंद्र बन गया है  पैसा।

सभी गतिविधियां , रिश्ते पैसे पर निर्भर करते है ।इसीलिए जीवन से मिठास गायब है।

आइए इस पर विचार करें, 

चिंतन मनन करें। चलिए कुछ रिश्ते निस्वार्थ भाव से , बिना किसी अपेक्षा के निर्वहन करने का प्रयास करें, चाहे वो इंसान इंसान के बीच का रिश्ता हो , या फिर इंसान और प्रकृति ( पेड़ , पशु, पक्षी , नदी , तालाब ) के बीच का।